क्या कहूं मैं, बल भुजाओं का कहां लग रहा, उर में जाकर, छुप पड़ा क्या करूं मैं कुछ अब सूझता नहीं और ये मन, जो कुछ बुझता नहीं कंप क्यों तनु में यूं मेरे पड़ी प्रेम में व्याकुल भला क्या ये पड़ी आत्मा भी गई छोड़कर अकेला काटते न कट रही क्यों ये बेला वक्त भी जैसे तपीस में ठिठुर गया स्मरण कुछ रहता नहीं सब भूल गया मस्तिष्क जैसे शून्य की ओर चला जीवन को मेरे भला हुआ ये क्या सूझता न कुछ, देखूं दसों दिशाएं क्यों नहीं कुछ भी मेरे मन को भाए क्या हुआ क्यों भला समझा नहीं मैं इस प्रकार यूँ राह से भटका नहीं मैं मेरी सारी कामनाएं खो गई मन की सारी भावनाएं सो गई प्रश्न मन में कई पर उत्तर नहीं कौन सा ये वक्त ये कैसी घड़ी नभ में निकला शशांक क्यों अपना लगे दूर चमकते सितारे क्यों स्वप्न सा लगें रात अंधेरी मगर, क्यों रौशनी है चांद भी पूरा नहीं, पर चांदनी है लालिमा सूरज की घेरे क्यों मुझे बादलों में छुप ये कैसी रौशनी है मेघ क्यों उमरें हैं, भला है बात क्या चाहिए किरणों को इनका साथ क्या गरज गरज क्या कह रहे, सूझता नहीं बरस बरस क्या कर रहे, बुझता नहीं जल जो मेरे पास आती हर एक पल छू कर यूं चलीं जाती, क्या कह मगर बागो...