क्रमश
क्या कहूं मैं, बल भुजाओं का कहां
लग रहा, उर में जाकर, छुप पड़ा
क्या करूं मैं कुछ अब सूझता नहीं
और ये मन, जो कुछ बुझता नहीं
कंप क्यों तनु में यूं मेरे पड़ी
प्रेम में व्याकुल भला क्या ये पड़ी
आत्मा भी गई छोड़कर अकेला
काटते न कट रही क्यों ये बेला
वक्त भी जैसे तपीस में ठिठुर गया
स्मरण कुछ रहता नहीं सब भूल गया
मस्तिष्क जैसे शून्य की ओर चला
जीवन को मेरे भला हुआ ये क्या
सूझता न कुछ, देखूं दसों दिशाएं
क्यों नहीं कुछ भी मेरे मन को भाए
क्या हुआ क्यों भला समझा नहीं मैं
इस प्रकार यूँ राह से भटका नहीं मैं
मेरी सारी कामनाएं खो गई
मन की सारी भावनाएं सो गई
प्रश्न मन में कई पर उत्तर नहीं
कौन सा ये वक्त ये कैसी घड़ी
नभ में निकला शशांक क्यों अपना लगे
दूर चमकते सितारे क्यों स्वप्न सा लगें
रात अंधेरी मगर, क्यों रौशनी है
चांद भी पूरा नहीं, पर चांदनी है
लालिमा सूरज की घेरे क्यों मुझे
बादलों में छुप ये कैसी रौशनी है
मेघ क्यों उमरें हैं, भला है बात क्या
चाहिए किरणों को इनका साथ क्या
गरज गरज क्या कह रहे, सूझता नहीं
बरस बरस क्या कर रहे, बुझता नहीं
जल जो मेरे पास आती हर एक पल
छू कर यूं चलीं जाती, क्या कह मगर
बागों में ये पक्षी क्यों चहचहा रहे
बात स्वयं कुछ कर रहे, न बता रहे
बोलती तो कुछ कोयल की कुक है
पूछने जो मैं चला, क्यों चुप सी हैं
पेड़ों के भी पत्ते क्यों सरसरा रहे
पूछने पर वो भी न कुछ बतला रहे
हरे भरे से हैं की ज्यों हों खुश बहुत
चुप हो जाते परंतु, झपकाते हीं पलक
मिट्टियां भी उड़ रहीं आकाश में
पूछने को ज्यों ही जाता पास मैं
थम यू जाते, जैसे कुछ हुआ नहीं
ज्यों वेग था उनका, कोई हवा नहीं
डालियां जो इस क्षण झुकी सी थीं
बात कुछ थी कर रहीं, रुकी सी थीं
डट गईं पूर्ण जैसे पहुंचा पास मैं
कर न पाया कुछ तब आभास मैं
लताएं जो थीं पास–पास, सिमटी हुईं
थीं जो ओस की बूंदों से वो भीगी हुई
छूनें को चाहा जब उन्हें, अलग हुईं
जैसे मन की बातें मेरी हों बुझ गई
चल पड़ा छोड़ उपवन एकांत की गोद में
स्वयं अपनीं हीं खोई हुई मति से क्रोध में
मन मेरा व्याकुल था पर प्रतिशोध में
भला ले रही प्रकृति क्यों न आगोश में
पास एक सरिता कलकल बह रही
धाराएं निर्मल थीं कुछ तो कह रहीं
कुछ किनारों में जो थीं ठहरी हुईं
पास जो आया, देख आगे बढ़ गईं
चल दिया मैं उठ सरोवर की दिशा
था लबालब मेघपुष्प से भरा हुआ
शांत वो भी पड़ गया, वृष्टि थमी
क्यों न जानें लग रही थी अल्पता
हिरणों का एक झुंड आया था वहां
कर रहा था संग जो चहलकदमियां
साथ मैं भी उनके पीछे दौर चला
बातें समझूंगा मैं उनसे कुछ भला
भुजा शरीर मस्तिष्क को समझा नहीं
कामनाओं भावनाओं को परखा नहीं
चांद तारे सूरज मेघ क्या कह रहे
जल पक्षी पत्ते मिट्टी समझाती क्या
डाली लता नदी सरोवर और हिरण
कुछ तो बातें कह रहे थे मन ही मन
व्याकुलता पर मेरी ज्यों बनी रही
न जानें श्रृष्टि मुझसे क्या कह रही
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