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Showing posts from February, 2023

आंचल

वर्षों रक्तरंजित थी धरा विलाप में थी ये अप्सरा आतंक चारों ओर हीं था आंसुओं से आंचल भरा क्रूरता कितनी हीं सही संस्कृति परंतु वहीं रही वसुधैव कुटुंबकम् सभ्यता जो आ गया, आकर बसा ममता का भारत आंचल गंगा सा परिपूत धरातल दिया सदैव प्रेम अपनानपन पूर्ण मधुरता तन मन जीवन

मूर्खों की संगोष्ठी

मूर्खों की संगोष्ठी में एक मूर्ख और आया चर्चाएं थी मूर्खों की स्वयं को विद्वान बताया पूछा सबमें प्रेम नहीं क्यों विस्मृत आँखों से उत्तर पाया सारे हुए बड़े अचंभित क्यों ध्येय समाज हित इसको प्रेम की क्यों पड़ी जब जगत में घृणा घनी यह तो है महामूर्ख तभी इसका चेहरा सुर्ख

मासूम चेहरा

दिल चुराए तेरा मासूम चेहरा खूबसूरती तेरी मुझको रिझाए तुझे देख खो जाता हूं सचमुच तुझे देख मेरा यह मन हर्षाए   होंठों की लाली चुरा लूं मैं तेरी तुझे अपनी बाहों में ऐसे समाऊँ निहारा करूं बैठ बस तेरा चेहरा करूं हर वक्त बस मैं दीदार तेरा खो जाऊं झील सी आंखों में तेरी लगाकर गले तुझको आराम पाऊं समा जा मुझमें समा जाऊं तुझमें अपनाऊँ तुझे तुम्हें अपना बनाऊं तुम्हें क्या बताऊं कितना चाहता हूं अप्सरा सा लगता तेरा मासूम चेहरा तेरी जुल्फ के साए में आ सो जाऊं यहीं चाहता हूं दिल में तेरे बस जाऊं

विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य

आकर्षण का द्योतक है गुण विनयता सा न कोई सद्गुण हर मानव का अहम है होता है साधन कर्म का वाकपटुता

यत् भावो – तत् भवति

जो घृणा में जी रहा है बस गरल हीं पी रहा है मन में बस विष धरा है पूर्ण अब उसका घड़ा है

कोपल

शून्य से अनंतता तक जीवन यात्रा अविरल यथार्थ किसी वृक्ष सा उन्नत हो ज्यों कोपल अल्पव्यस्क सरल निश्छल न अभिलाषा रहना निश्चल पनपने हेतु मन व्याकुल सा बढ़ते रहना, देती यह शिक्षा नई उमंगें, नई आशाएं भोगना जग की विपदाएं पर सदैव हीं बढ़ते रहना प्रयत्न कोपल सा नित करना