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Showing posts from June, 2021

वन गमन

कदाचित निर्णय आसान नहीं वन गमन को हाँ कैसे कह दूँ पुत्र मेरा ह्रदय का टुकड़ा हीं किस बात का उसको दंड मैं दूँ मन व्याकुल तन में प्राण नहीं लेती हो कैसी परीक्षा प्रिए राम भरत में कुछ भी भेद नहीं दोनों को समान है प्रेम दिए हे प्रेयषी क्यों मन में भाव ये बदली क्यों तेरी प्रवृत्ति यूँ क्यों मन में तेरे घाव ये भिन्नता दोनों में करती क्यों बेसुध हुए गई चेतना बस राम नाम निकले मुख से कैकेयी न करे विवेचना हारे लगें दशरथ दुःख से आदेश को शिरोधार्य रखा श्री राम तब निकले वन को कठिन घड़ी अयोध्या में तज गए प्राण दशरथ देखो नियति का लिखा रोके कौन राज्याभिषेक अवरोध हीं था त्रेता के तारणहार थे राम होना तब तो वियोग हीं था 

क़लम

कीमत सच की क़लम से ही क़लम इतिहास बनाता विश्वास उसी पर लोगों को जो क़लम से लिखा जाता कुछ लिखते कुछ बिकते सच्चाई कहाँ अब टिकती वातावरण हुआ प्रदूषित सा क़लम की प्रतिष्ठा डूबती मान क़लम का रहा विश्वास रहा हर जन को वक़्त नें बदल दिया सब कुछ क्या कहें आज के लिखने को

पिता

न हैं लेख बहुतेरे न कविताओं में हीं पिता की भावनाएँ रहती ह्रदय में हीं छांव बनकर हर पल  मगर न कुछ भी कहते सफलता की सीढ़ी पर थाम ऊँगली पहुँचाते पिता आभास पिता विश्वास पिता कर्मठता का एहसास अटूट शक्ति के परिचायक पिता संतान के नायक पिता वो राह की जिसमें मंज़िल की कसक रहती पिता वो आसमान से हैं ज़मीन को जो ढकी रहती

शाम बनारस

शहर नहीं ये आम बनारस शनैः शैनः है जाता सूरज देखो जाकर शाम बनारस सुहावन लुभावन आकर्षक कल कल बहती गंगा मइया जगमगाते घाट चौरास्सी धीमे खेवे नाव खेवैया मन लुभाती दिव्य काशी भव्य आरती मंत्रोचारण शाम बनारस की मनभावन परंपरा इतिहास है मस्ती शाम काशी की दिल में बसती

भक्त

अभिमान इतना हुआ की सोच सिमट कर रह गई भूल गए सम्मान को घृणा घर मन कर गई मुक्ति हेतु है मार्ग जो वो भक्ति है भक्त की ईश्वर प्राप्ति को कार्य जो वो सेतु हीं तो है भक्ति परम प्रेम श्रद्धा आराध्य से भक्त की सदा पहचान रही पूर्ण समर्पण अंतर्मन से निष्ठापूर्ण साधक परमात्मा प्रति शब्दों से यूँ खेलकर जीर्ण मानसिकता दर्शाते जो स्वयं का अस्तित्व पता नहीं औरों का जो बताते वो