वन गमन

कदाचित निर्णय आसान नहीं

वन गमन को हाँ कैसे कह दूँ

पुत्र मेरा ह्रदय का टुकड़ा हीं

किस बात का उसको दंड मैं दूँ


मन व्याकुल तन में प्राण नहीं

लेती हो कैसी परीक्षा प्रिए

राम भरत में कुछ भी भेद नहीं

दोनों को समान है प्रेम दिए


हे प्रेयषी क्यों मन में भाव ये

बदली क्यों तेरी प्रवृत्ति यूँ

क्यों मन में तेरे घाव ये

भिन्नता दोनों में करती क्यों


बेसुध हुए गई चेतना

बस राम नाम निकले मुख से

कैकेयी न करे विवेचना

हारे लगें दशरथ दुःख से


आदेश को शिरोधार्य रखा

श्री राम तब निकले वन को

कठिन घड़ी अयोध्या में

तज गए प्राण दशरथ देखो


नियति का लिखा रोके कौन

राज्याभिषेक अवरोध हीं था

त्रेता के तारणहार थे राम

होना तब तो वियोग हीं था 


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