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बाइस्कोप

आया था जो बहुत होप से देखूं पलट बाइस्कोप को अच्छा बीता ये भी साल हर साल एक सा हाल समय बुरा होता नहीं  भाग्य का न खेल होता बीते कैसे वक़्त भला कर्म से वो मेल होता सीखते चलें यूँ हीं बढ़ते चलें रखें राह सदा हीं आनंदित गिरना संभलना बस नियति आचरण रखें सदा मर्यादित

तुम

यूं कातिल निगाहों से मुझको देखा ना करो यूं इतनी खूबसूरती से तुम मुस्कुराया न करो तुम्हें देखकर मुझको लगता क्यों ऐसा की फूलों की बगिया तुम शीतल हिमालय सी यूं अपनी अदाओं से करो ना तुम घायल बिन किए कुछ तुम्हारे तुमपर हैं हम पागल ये मासूम चेहरा प्यारा क्या सजना संवरना खूबसूरत तुम इतनी बिना कुछ किए हो

बचपन के मित्र

मिट्टी की बनी टीलें हों बल्ला ले चलें मैदान में कुछ झगड़े–लफड़े भी फिर खेलें सब साथ में समूह बना किसी ओर चलें जाना हो कहां मालुम नहीं कुछ नई जगहें तलाशे हम बचपन के दोस्त भुलाए नहीं अंधेरा हो, आवाज़ आए घर से अब आओ, पढ़ना नहीं है क्या क्या सदा खेलते हीं तुम रहोगे यूं हो बड़ा, कुछ बनना नहीं है क्या ले साइकिल संग स्कूल चलें रास्ते में भी कई फिर चर्चे हों कभी चेन खुली, कभी पंचर पैदल ही सब उस ओर चलें घंटी बज गई पर पहुंचते हीं प्रार्थना के वक्त हम दूर रहें आए फिर शिक्षक पास में भटक रहे थे तुम लोग किधर पकड़ के कान क्षमा–याचना न होगा अब ऐसा कर प्रार्थना शिक्षक का मन पिघलाते थे फिर कक्षा में हमसब जाते थे मध्यांतर में तब संग में खाना कहीं रोटी थी कहीं मिठाई थी कैंटीन से समोसे की वो खुशबू हम सबको तब बड़ी रिझाई थी आते थे परीक्षा के जब पल चेहरे पर सबके तनाव रहती ये नोट है तुम्हारे पास में क्या कक्षा में बस ये चर्चाएं रहती उस दौर से निकल सब जाते थे कक्षा अगली में प्रवेश पाते थे यूं हीं बीत गए थे तेरह साल आगे होगा क्या मन में सवाल इधर उधर कॉलेज में सब फिर होना दूर भाग्य में था सब व्यस्त अपनें जीवन में...

आत्मा

स्थूल इस शरीर में सूक्ष्म, अटल सत्य जीवन, मरणोपरांत शास्वत, प्रबल सदा जिसको संदेह है वो भी एक देह है जीव है तो सोचता अस्तित्व स्वयं स्वरूप मुझमें तुझमें आत्मा आत्मा मैं और तुम उपभोग शरीर का जीर्णता में त्यागती आत्मा प्रकाश पुंज कर्म को समेटकर पूर्ति इच्छाओं की ढूंढती रहती सदा