बचपन के मित्र
मिट्टी की बनी टीलें हों
बल्ला ले चलें मैदान में
कुछ झगड़े–लफड़े भी
फिर खेलें सब साथ में
समूह बना किसी ओर चलें
जाना हो कहां मालुम नहीं
कुछ नई जगहें तलाशे हम
बचपन के दोस्त भुलाए नहीं
अंधेरा हो, आवाज़ आए घर से
अब आओ, पढ़ना नहीं है क्या
क्या सदा खेलते हीं तुम रहोगे यूं
हो बड़ा, कुछ बनना नहीं है क्या
ले साइकिल संग स्कूल चलें
रास्ते में भी कई फिर चर्चे हों
कभी चेन खुली, कभी पंचर
पैदल ही सब उस ओर चलें
घंटी बज गई पर पहुंचते हीं
प्रार्थना के वक्त हम दूर रहें
आए फिर शिक्षक पास में
भटक रहे थे तुम लोग किधर
पकड़ के कान क्षमा–याचना
न होगा अब ऐसा कर प्रार्थना
शिक्षक का मन पिघलाते थे
फिर कक्षा में हमसब जाते थे
मध्यांतर में तब संग में खाना
कहीं रोटी थी कहीं मिठाई थी
कैंटीन से समोसे की वो खुशबू
हम सबको तब बड़ी रिझाई थी
आते थे परीक्षा के जब पल
चेहरे पर सबके तनाव रहती
ये नोट है तुम्हारे पास में क्या
कक्षा में बस ये चर्चाएं रहती
उस दौर से निकल सब जाते थे
कक्षा अगली में प्रवेश पाते थे
यूं हीं बीत गए थे तेरह साल
आगे होगा क्या मन में सवाल
इधर उधर कॉलेज में सब
फिर होना दूर भाग्य में था
सब व्यस्त अपनें जीवन में
मिलने को अवकाश हीं था
पढ़ाई भी थी तब खत्म हुई
मन में सबके कई शंकाएं थी
क्या करेगा ये, आगे चलकर
परिवार की कुछ आशाएं थी
उलझ गए थे कार्य में अपनें
करने पूर्ण जीवन के सपनेँ
खो गए थे बचपन के मित्र
बस आंखों में धुंधली चित्र
सोशल मीडिया का उदगम हुआ
थीं जो दूरियां तब वह खत्म हुई
मिले बचपन से बिछड़े दोस्त कई
नदियां पुनः तब बचपन की बही
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