बड़ा चमत्कारी था चक्रव्यूह फंस गया जिसमें अभिमन्यु बाहर आने का था बोध नहीं उसे भेदने का था ज्ञान परंतु हो रही चर्चा कैसे बाहर जाएं कैसे चक्रव्यूह तोड़ सब पाएं कहते युधिष्ठिर बढ़ आगे पुत्र संग पीछे हम सारे योद्धा आएं चला वीर तब सबसे आगे थे रौद्र रूप देख शत्रु भागे गोलाकार घूमता चक्रव्यूह चला गया भेदता अभिमन्यु एक दिवस वरदान था जयद्रथ को सब पांडव हारेंगे, छोड़ अर्जुन को था रोक लिया हर एक को उसने साहसी धनुष गदाधारी थे जितने था चला अकेला धर्मपथ पर भेद छः चक्र जा पहुंचा अंदर जहां एक नहीं सात योद्धा थे वह सारे एक से एक भयंकर हो रहा चहुंओर से आक्रमण भटका नहीं पर किंचित मन बाणों से परंतु भेदा हुआ तन पटी शोणित से धरा की कण घेरा गया था हर एक दिशा से यथा व्योम में चंद्रमा निशा से विदित था, वीरगति निकट थी नहीं चेहरे पर भय की रेखा थी मन में तनिक चिंतायुक्त कर्ण मनन हो अंत क्षण में जीवन इस बालक को कष्ट नहीं हो भोंक दिया पल में खंजर को सत्य मार्ग कठिन ही होता बाधाएं अनगिनत हैं रहती बढ़ना है तो बन अभिमन्यु होता नहीं कोई अजातशत्रु