क्या कहूं
समझूं तुझे, मेरे बस की बात नहीं
तू कैसी है, मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं
कभी लगता तुझे हद तक जानता
कभी लगता, कुछ नहीं पहचानता
किन शब्दों में लिखूं अपनी भावनाएं
जानता हूं, तुम सब कुछ जानती हो
पर तुम्हारा स्वभाव है भला क्यों ऐसा
मुझे मानती, फिर भी नहीं मानती हो
तू तो बदलती है मौसम की तरह
कभी पास आती कभी दूर जाती
कभी लगे तुम्हें अपनानपन मुझसे
कभी लगे मैं कुछ भी नहीं तेरे लिए
और इस कश्मकश के बीच हीं
बस सदैव पीसता रहता हूं मैं
कभी तुम मुझे कितना मानती
और एक ही पल में दूर जाती
क्या हम दोनों अपने रिश्ते को
एक विशालता नहीं दे सकते
क्या पास आना संभाव्य नहीं
क्या डूब जाने का भाव नहीं
कहीं न कहीं हम पास तो हैं
मानो न मानो हम साथ तो हैं
हम दोनों के बीच एक चाहत
इसे न मानना तुम्हारी आदत
पर तुम भी मुझे तलाशती हो
आंखें मूंद तू मुझे निहारती हो
कितना भी दूर कर दो स्वयं को
पर मन हीं मन मुझे पुकारती हो
और कैसे भी हों तुम्हारे सितम
मुझे पास पाओगी तुम हरदम
यकीं इस बात का तुम्हें भी है
भरोसा मुझपर सदा तुम्हें भी है
तुझे मैं मझधार में छोड़ नहीं सकता
जलाओ जितना मुंह मोड़ नहीं सकता
कभी तो कद्र करोगी मेरे प्रेम का तुम
कभी तो समर्पित करोगी स्वयं को तुम
यह पवित्र प्रेम अपना शरीर का नहीं
एकदुजे को पाने को अधीर हम नहीं
यह मिलन तो मन और आत्मा का है
यह विश्वास तो कृष्ण और राधा का है
और जब आएंगे हम आलिंगन में
असीम आनंद पाएंगे हम जीवन में
तुम कहोगी इसी सुख की तलाश थी
तुम कहोगी उफ अधूरी मेरी प्यास थी
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