लज्जा
चली किस ओर ये दुनियां
हैं बदले मुन्ने और मुन्नियां
पहनावा, चाल, बोली में
है कमी लिहाज़ की इनमें
न कोई सेज न सज्जा
न कोई सोच न लहजा
बदल गई प्रवृत्ति सबकी
बेबाक से, न कोई लज्जा
हवाओं का रुख बदला सा
नदियां बहती गलत दिशा
पंछी भी राह को हैं भटके
लगता हर कोई बहका सा
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