श्रृंगार
श्रृंगार से सुशोभित
पृथ्वी का कण कण
कहीं विशाल पर्वत
पसरे कहीं घने वन
वो दूर नभ में जलधर
लगे यूँ ज्यों है आँचल
चंद्र सूर्य की वो किरणें
मन जो सभी का हर लें
चलें जो मंद हवाएँ
लहरा के खेत जाएँ
जल नदियों का कल कल
अलंकृत दसों दिशाएँ
ऋतुएँ कई हैं आती
मन सबका है लुभाती
श्रृंगार ऐसा होता
छटाएँ हैं मन को भाती
अनंत अपार तो क्या
पृथक श्रृंगार तो क्या
मोहकता सबकी अपनी
सबकी है अपनी जननी
श्रृंगाररस में जीवन
व्यतीत हो रहा है
स्वर्ग के ही जैसा
प्रतीत हो रहा है
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