कई युगों की सभ्यता
कई युगों की सभ्यता
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।। कई युगों की सभ्यता ।।
कई युगों की सभ्यता
सदियों की ये संस्कृति
आज भी है वैसी ही
जैसे सहस्त्र वर्ष पहले थी
कईयों ने कई प्रयत्न किए
कितनों ने कितनी चेष्टा की
जो भाव था, वहीँ रहा
जो सोच थी, वहीँ रही
न द्वेष को मिली जगह
न घृणा घर कर पाई
भारत भूमि सदा रही
इंसानियत की जननी सी
आए कितने आक्रमणकारी
कितनों नें कई संहार किए
खुनों से सना इतिहास रहा
हर वक़्त पर हम खड़े हुए
बच्चों नें सदा ही माँ समझा
अपनी इस पावन धरती को
कोई हिला सका डिगा सका
वंदे मातरम सा उद्घोष
यहाँ धरती पावन, नदियाँ पावन
पावन पर्वत हर मूरत है
आया हो कोई कहीं से भी
अपनाया, पाया यहाँ घर है
ये देश की अपनी परिभाषा
कोई इसको क्या बिगाड़ेगा
हर पत्थर फूल बन जाएगा
कोई कितना पत्थर मारेगा
- नवनीत
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