भटकते मज़दूर

भटकते मज़दूर 
NAVNEET

।। भटकते मज़दूर   ।।

देख के कष्ट आम जनों का मन मेरा विचलित होता है जिनके पास न रोटी है वो रात में कैसे सोता है छिन गई है रोज़ी जिनकी पास न है कुछ खाने को जाना चाहें अपने घर वो साधन नहीं पर जाने को समस्त परिवार टूट गया है महामारी की बेचैनी में सूझ रहा नहीं अब कुछ भी आगे रखा क्या जीवन में

दुःखों का पहाड़ है टूटा कष्टमय उनका जीवन है पर कुछ कर्म-जनों के कारण जीवन में उनके उजाला है इंसानियत का कर्म जो करते कर्म को ही धर्म समझते ऐसे कुछ लोगों के कारण भूखे न कुछ लोग हैं सोते तन मन धन सब अर्पण है ईश्वर के इंसांनों पर दिन रात और चारों पहर जो ज़िंदा हैं बस कर्मों पर

- नवनीत

Comments

Popular posts from this blog

अब जाता हूं .....

चक्रव्यूह

वो क्षण