मज़दूर

मज़दूर 
NAVNEET

।। मज़दूर  ।।


गांव की वो गलियां, वो छोटी सी दुनियाँ,
वो पेड़ों की छाँव, जहाँ पर हम खेले।

वो छूटे सभी, रोज़ी रोटी के कारण,
एक मजदुर का रूप, किया हमने धारण।

चले फिर शहर को, लिए मन में सपने,
थी बस एक आशा, छूटे सारे अपने।

नए सपने सजाने, नई दुनियाँ बसाने,
लिए कामना यह, चले हम निभाने।

न था काम, न रोटी, न कोई ठिकाना,
बड़ी मिन्नतें की, किए कई जतन फिर।

जीने को जीवन, मिला एक बहाना,
मिली रोज़ी रोटी, मिला फिर ठिकाना।

सुबह की वो पहली, किरण से भी पहले,
हम उठते हैं सो कर, थकावट भी रहती।

वो पिछले दिनों की, थकावट जो अपनी,
वो अगले दिनों तक, भी रहती है संग में।

हमारी ही मेहनत, का है यह फल की,
सभी को है मिलती, वो सारी सुविधाएँ।

महल वो जो प्यारे, वो खाने की चीज़ें,
वो जग के सभी सुख, में युक्त दुःख हमारा।

हमारे पसीने, लहू है हमारा,
नहीं चाहिए पर, हमें कुछ भी ज़्यादा।

बस थोड़े से आदर से, हमको भी देखें,
हमें मूल सुख दें, हमें दें प्रतिष्ठा।

हमारे भी बारे में, आप कुछ तो सोचें,
हमारे ही मेहनत से, हर सुख हर सुविधा।

- नवनीत

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