गांव की वो मस्तियाँ

गांव की वो मस्तियाँ 
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।। गांव की वो मस्तियाँ ।। 




छूट गए वो गांव गलियारे,
छूट गए वो बचपन सारे।
वो शुद्ध हवाएं छूट गईं,
लगता ज़िन्दगी रूठ गई।

छूट गए वो विद्यालय,
जो वृक्ष के छावं में लगते थे,
जब साथ में हर कक्षा के बच्चे,
हँसते खेलते पढ़ते थे।

वो दादा दादी छूट गए,
वो चाचा चाची छूट गए।
वो फुलवारी छूट गयी,
वो फूस के छप्पर छूट गए।

वो खेत खलिहान कहाँ गए,
वो पीपल की छांव कहाँ गई,
वो रात पूनम की कहाँ गई।
वो खुले आसमान कहाँ गए।

खेलना वो मिट्टियों से,
धरती पर गिरे पत्तियों से।
वो बचपन के साथी छूट गए,
वो किस्से कहानी छूट गए।

गांव की वो मस्तियाँ,
गांव की अठखेलियां।
गांव के वो बगीचे,
गांव के सखा सहेलियाँ।

छोड़कर सब आ गए,
शहर के शोर में।
भूल गया इंसान सब,
रोज़ी रोटी की होड़ में।

क्यों वापस नहीं हम जा सकते,
क्यों फिर से नहीं घर बना सकते।
क्या वापस आ सकते वो दिन,
जो थे हर रंगों से भी रंगीन।

- नवनीत

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