सिंध में सूर्यास्त

गौरवशाली भूमि सिंध की
थी जैसे पहचान हिंद की
यश कीर्ति चहुं ओर थी फैली
कुदृष्टि परंतु कर गई थी मैली 

सनी शोणीत से तब थी धरा
हाहाकार नभ तक छाया था
एक राष्ट्र द्रोही का कुकर्म था 
ले सूर्यास्त सिंध में आया था

विशाल सेना ले करने आक्रमण
आया सीमा पर विक्षिप्त कासिम
परास्त हुआ न थी मिली सफलता
बंदरगाह पर शत्रु संग बिता वो दिन

बतलाया सैन्यशक्ति संग रणनीति
सिंध की गुप्त जो पहचान रही थी
जो गोपनीय था किया उजागर
हारा था सिंध अपनों के छल पर

देवल में कर तब नरसंहार
धर्म परिवर्तन संग अत्याचार
तीन दिनों शमशान था देवल
क्रूरता हीं द्योतक थी केवल

निरून, सीसम, सेहवन था टूटा
पतन हो रहीं थी एक सभ्यता
अपनों का हीं यह एक अघ था
विभीषण के आगे राष्ट्र विवश था

थे रावेर में तब आए सिंधु नृप दाहिर
पराक्रमी योद्धा, अद्वितीय एक वीर
भाग्य में परंतु था कुछ और लिखा
युद्ध में था मतंग का अंबारी जला

भयभीत हुआ गज, रण छोड़ चला
संग अपनें विश्वास्यता तोड़ चला
बिखर गई थी तब सेना नृप की
दाहिर को हुई प्राप्त थी वीरगति

आरंभ हुआ तब लूट का तांडव
क्या धन वैभव, क्या हीं मानव
भारत–सिंध की तब थी पहचान
संपन्न समृद्ध था वो नगर मुल्तान

अभेद्य किले से घिरी थी सभ्यता
नष्ट होना हीं कदाचित नियत था
उस वक्त भी अपनों ने हीं छला था
जल स्रोत कटने से विवश नगर था

खुला किले का द्वार अभेद्य
विनाश का हीं ये था संकेत
भव्य नगर में नदियां रक्त की
मनुष्य नहीं था स्यात दानवी

प्रवेश किया जब नगर अभ्यंतर
अवलोकित हुआ एक भव्य मंदिर
शिल्पकारों का था एक नगीना
मानव सी थी वो सूर्य प्रतिमा

भव्यता का था आभास हुआ
संग एक दानव भी था निकला
पास वहीं पर थी एक गौशाला
ला नाट्य मंडप तलवार निकाला

गोवध से तब कांपी थी सृष्टि
कितनी थी लांछित वह दृष्टि
खींच निकाला गौमांस धृष्ट ने
अत्याचार हीं था उसका परिचय

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