द्वंद्व

राजनीतिक द्वंद्व था जारी
आए एक से एक खिलाड़ी
सच्चाई का तब ओढ़े चोला
बोलें, मुख से उगलें शोला

जनता में भी आया जोश
भीड़ बढ़ी, बढ़ा आक्रोश
लगे फिर नारे, आवाज़ उठी
माहौल में आई थी गर्मी

हुए इक्कठे, लोग बढ़े
जो आए सामने, टूट पड़े
दिखा न भड़काने वाला चोर
चला गया था बोल के बोल

शहर था शमशान बना
बस्तियाँ थी उजड़ गईं
शांति थी रहती फैली जहाँ
किलकारी वेदना में बदल गई

विश्वास का धागा टूट गया
जो अपना था वो छूट गया
नज़रों में अब संदेह बसा
अपनापन जो था रूठ गया

क्या पाया, बस खोना हीं था
तब जीवन में रोना हीं था
जो रहते साथ, थी बात अलग
जीवन जीने की चाह अलग








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