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भारतीय रेल

भारत भू को जोड़ती एक कड़ी साथ में जाती जो नदियाँ पर्वत खेतों से निकल हम सबका मन बहलाती जो खूबसूरती अपनें राष्ट्र की हर यात्रा में दिखलाती जो कई रंग कई लोगों का संग चलते राह में दिलाती जो लुभावन यात्रा को तत्पर  कोनें कोनें में जाती जो अटूट भारत अटूट रिश्ते का अनुभव दिलाती जो

श्रृंगार

श्रृंगार से सुशोभित पृथ्वी का कण कण कहीं विशाल पर्वत पसरे कहीं घने वन वो दूर नभ में जलधर लगे यूँ ज्यों है आँचल चंद्र सूर्य की वो किरणें मन जो सभी का हर लें चलें जो मंद हवाएँ लहरा के खेत जाएँ जल नदियों का कल कल अलंकृत दसों दिशाएँ ऋतुएँ कई हैं आती मन सबका है लुभाती श्रृंगार ऐसा होता छटाएँ हैं मन को भाती अनंत अपार तो क्या पृथक श्रृंगार तो क्या मोहकता सबकी अपनी सबकी है अपनी जननी श्रृंगाररस में जीवन व्यतीत हो रहा है स्वर्ग के ही जैसा प्रतीत हो रहा है

प्रतीक्षा

परिंदों नें है पाया उड़ने का प्रयोजन वन से निकल बाहर पशु कर रहे विचरण उन्हें भी है आश्चर्य कैसा समय है आया कोई संकट नहीं न कोई भय का साया उड़ रहे स्वछंद हैं घूम रहे हैं खुले तौर से ये अवसर उनके लिए अद्वितीय उन्होंने कितनी प्रतीक्षा हैं किए